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खुशियाँ बाँट रहे थे / हरिवंश प्रभात
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खुशियाँ बाँट रहे थे हम
पर दुःख को छिपा नहीं पाये,
शीश झुकाये खूब बड़ों के
फिर भी कृपा नहीं पाये।
पाँवों में थे पंख लगे
आकाश पतंगे उड़ते थे,
उमंगों की कमी नहीं थी
हम नित नवीन से जुड़ते थे।
आँखों में तस्वीर मुकम्मल
दिल में लिखा नहीं पाये।
बदलावों की इस बयार में
रिश्तों में शर्त समर्पण है,
मंगलसूत्र नहीं है काफी
साफ संजोया दर्पण है।
नया रूप और रंग प्रेम का
भरसक दिखा नहीं पाये।
निकल रहा बाहर समाज है
घिसी-पिटी परिभाषा से,
ऊबा हुआ है, डूबा हुआ है
प्रेम लगे ज्यों प्यासा से।
हाथ पकड़कर बच्चे चलते
पर मन को थमा नहीं पाये।