क्या कहो / दिनेश कुमार शुक्ल
अब
कहो भी तो क्या कहो
इस बिराने हो चले देस को
जो हमारी-तुम्हारी विस्मृति में
रात के अन्तिम तारे की तरह
टिमटिमा रहा है
और आँखों में
बार-बार उमड़ आता है समुद्र
और कहो भी तो क्या कहो
उन रणबाँकुरों की आन-बान-शान को
जो आपस में ही कट मरे
जब गढ़ पर
चढ़ा चला आता था मौत का लश्कर
और इस भूमि का तो कहना ही क्या
जो न जाने किस संकोच में
सिकुड़ती ही चली जाती है
कि छुई-मुई मात है
और इन मर्यादाओं पर तो
बलि-बलि ही जाइए
कि जब देशवासी
अपनी अस्मिता को छूने में भी लजाएँ
जैसे गुजरे जमानों के बाप
सबके आगे अपने ही पुत्र को
गोद लेना निर्लज्जता समझते थे
पर सबसे बढ़ कर तो
बलइयाँ ली जानी चाहिए
उन उदारमना विद्यावणिकों की
जो आक्रान्ताओं द्वारा किए गये नरसंहारों को
उनकी राजनीतिक बाध्यता
और देश की पराजय को सौभाग्य बताते लजाते नहीं-
यह कैसा अन्त इतिहास का!
इतिहास की इस चन्द्रहास का वार
हर बार
कहो भाई
निहत्था कब तक बचाऊँ!