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आँखें / दिनेश कुमार शुक्ल
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जैजाक भुक्ति के प्राचीर पर
हमने पत्थरों की
मांसपेशियाँ बनायीं,
लोहे की छेनी की धार
मुलायम मोम-सी
उत्तेजित रक्त की शिराएँ
उभारती चली गयीं कठिन कठोर शिलाओं में,
रोमांचित रोमावलि की बिजली से
पाषाणों की गोलाइयाँ
गहराइयाँ भरती गयीं
छेनी से होकर
हमारा ही सत्त
भरता गया पत्थरों में,
और पत्थरों से भी
कुछ आया बहता हुआ
और भर गया हमारी आँखों में
पथराई आँखें
हे पर्यटक
मूर्तियों की नहीं
ये जीवित आँखें हैं उनकी
जो बताया जाता है
आज से बारह सौ साल पहले
जा चुके हैं
किसी दूसरे चट्टानी ग्रह-पिंड पर।