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नीम / दिनेश कुमार शुक्ल

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डरते हैं तुमसे नर-पुंगव
उन्हें पता है
तुम इतनी कड़वी हो
जितना कड़वा नीम भी नहीं

बड़ों-बड़ों को तुम कर देती ठीक
तुम्हारे औषधीय गुण
वैद्यों को भी नहीं पता है
अभी ठीक से

तुम हो छायादार
हरी छतनार छरहरी डार
मगर क्या बात
कि तुम तक आएँ भृंग-पतंग
तुम्हें छू जाएँ दीमक-कीट
तुम्हें झकझोरे कोई बयार
कोई पतझर भी तुमसे
छीन नहीं सकता इक पाती

लेकिन बिल्कुल नीम की तरह
आभ्यन्तर का अर्क भिगोता है जब मन को
गोंद और पानी बनकर बहने लगता है
पत्तों ही पत्तों में झर कर
भर देतीं तुम सागर धरती और गगन को
और हमारे मन को
शीतल मन्द पवन से
डालों की सरसर से छूकर
कर देती हो छुईमुई-सा।