भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जहाँ पाँव टिकते / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:03, 19 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुमार शुक्ल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जहाँ पाँव टिकते
बेचैन है
और चुप है
चाँद बेहद अकेला गगन में
न बादल न तारे न कुहरा न किरनें
न पक्षी न पानी न उल्का न लहरें
उठे ज्वार
तो अब उठे किस समन्दर
कहीं कोई मन भी नहीं
जिसमें खोई हुई धुन
जगाती नया राग
न इच्छा न तृष्णा
न ही कामना वासना कुछ नहीं अब
न सपनों का वैभव
न निद्रा का सरगम
न जगना न सोना न पाना न खोना
न बेला न चम्पा-जुही-रातरानी
न धीरे से छुपता हुआ कोई साया
न मृग है न मृगया
न भय है न सिहरन
कहीं कुछ तो होता
जहाँ पाँव टिकते
जहाँ प्रेम जगता
जहाँ बैर ठनता
न अब चन्द्रमा है
न अब रात बाकी
कहीं कुछ तो होता
जो इस मौन को
सुन के कहता
कि हाँ ऽऽऽ !