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प्रिया मोहन(सोनेट) / अनिमा दास

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एक प्रहर में, मौनता की कई निशाएँ... क्षुब्ध होती हैं
इस तनु की गंध_ वाटिका में...अस्थियाँ वंशी बनतीं हैं
तुम दे जाते हो जन्मों का संगम..., मृदा में रुधिर निर्झर
हृदय-सरि में पद्म सम...होता पुष्पित...व्यथा-पुष्कर।

बिंबित होता चित्र लुप्त भावों का, नित्य अंजुरी में एक
मैं, मंद-मंद चलती पवन में गूँथती, श्वास-मुक्ताएँ अनेक
तुम होते अंकुरित अशांत वसुंधरा के सिक्त वक्षस्थल से
मैं जीवित हो जाती, तुम्हारे निस्तल प्रेमिल मधु जल से।

तुम ही धीर हो, तृषा की तीर हो, तुम ही शीतल सलिल
छायाहीन स्वरूप की काया तुम, मग्न मेघों का कलिल
सहस्र पूर्ण कुंभ से, देह में है, पारिजात की मुग्ध सुगंध
गिरिशीर्ष में जैसे दिवा की दिव्यता व स्तीर्ण मलयज गंध।

देखो, कज्जल होता विलीन, रजनी क्रमशः होती चंद्रप्रभ
मोहना! आलिंगन में है नक्षत्र, किंतु, प्रिया है नीरव निष्प्रभ।
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