Last modified on 3 जून 2022, at 12:05

नदी आज कोरों से बहने लगी / शशि पाधा

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:05, 3 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि पाधा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

  संयम की मिट्टी ढहने लगी
नदी आज कोरों से बहने लगी|

किनारों का बंधन
टूटा कहीं
पलकों से नाता
रूठा कहीं
आँखें भी सीलन सहने लगीं|

इक फाँस पैनी
 चुभती रही
दलीलों की बाती
बुझती रही
पोरों पे पीड़ा दहने लगी|

साँसों की सरगम
रुक सी गई
संवादों की पूँजी
चुक सी गई
चुप्पी ही हर बात कहने लगी|

काँधे हथेली
धरे तो कोई
मन के सकोरे
भरे तो कोई
 उन्मन सी देहरी रहने लगी |
 नदी आज कोरों से बहने लगी |