भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झर गई बेला / देवेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:11, 3 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
खिली थी
झर गई बेला
तुम्हारे प्यार के
पाँवों पड़ी
अब तर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला
हवा का लाँघकर
चौखट चले आना
रोशनी का
अन्धेरे में फफकना
फूटकर बहना
पड़ा रहना
बिला जाना
बताता है
कि किन मजबूरियों में
मर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला