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पीर हरूँगी / कविता भट्ट

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1
मन-विदीर्ण
देख जग के नित
भाव- संकीर्ण।
2
काल- जनित
हिय है उद्वेलित
दुःख निहित।
3
बहुत थकी
अंतस की नदिया
किंतु न रुकी।
4
नहीं हैं हारे
प्रतीक्षा में रहते
व्याकुल द्वारे।
5
धीर धरूँगी
सावन आएगा तो
पीर हरूँगी।
6
न तुझे पाया
ना जग रास आया
क्या यह माया।
7
तू उठ चल
झूमेगा तू परसों
गाएगा कल।
8
क्यों है निराशा
राहें करें स्वागत
नित प्रत्याशा।
9
सब जीवन
अमृत झरे हँसी
या हो रुदन।
10
धरा-गगन
आपस में मगन
महामिलन।
-0-