शिखर पर / निकअलाय रेरिख़ / वरयाम सिंह
मैं एक बार फिर आवाज़ दूँगा
कहाँ चले गए हो तुम मुझे छोड़कर
एक बार फिर से
सुनाई नही पड़ रही है तुम्हारी आवाज़
चट्टानों के बीच कहीं
चुप सी पड़ गई है तुम्हारी आवाज़
अलग नही कर पा रहा हूँ उसे
पतली टहनी के गिरने
और पक्षी को अचानक उड़ जाने की आवाज़ से
कहीं खो गई है
तुम्हें पुकारती मेरी आवाज़ ?
मालूम नही, तुम जाओगे या नही
पर शिखर पर जाने की
बहुत इच्छा है मेरी
पत्थर पहले ही नग्न हो चुके हैं
मुरझा चुकी है धूपचन्दन
कठिन हो रहा है उसके लिए खड़ा रहना
और काई तो जैसे गायब हो गई है
मेरे काम भी आ सकती है तुम्हारी रस्सी
पर मैं अकेला होते हुए भी चढ़ूँगा
शिखर पर
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह
लीजिए, अब यही कविता मूल भाषा में पढ़िए
Николай Рерих
Взойду
Голос еще раз подам.
Куда от меня вы ушли?
Вас мне снова не слышно.
Голоса ваши в скалах
заглохли. Я больше не отличу
голос ваш от
ветки падения, от взлета
птицы случайной. Призывы
мои для вас тоже исчезли.
Не знаю, пойдете ли вы,
но хочется мне еще на
вершину подняться. Камни
уже оголились. Мхи стали
реже, а можжевельник
засох и держится слабо.
Аркан ваш пригодным
был бы и мне, но и один я
взойду.