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पथ से पृथक चलन देखा है / सुनील त्रिपाठी
Kavita Kosh से
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पथ से पृथक चलन देखा है।
जल से जलते मन देखा है।
गुमसुम गुमसुम-सी समिधाएँ,
हव्य स्वयं की अभिलाषाएँ।
स्वाहा स्वाहा की ध्वनियों पर,
सिसक रही हैं, वेद ऋचाएँ।
नयन नीर की आहुतियों से,
होते हुए, हवन देखा है।
जल से जलते मन———
कुछ यों बहा बिखरकर काजल
जैसे उमड़ पड़े हों बादल
निकल पड़ी बूंदों की टोली,
पलकों ने खोली ज्यों सांकल।
ठहर ठहर बूंदो को करते
अधरों पर चुम्बन देखा है।
जल से जलते मन———-
कैसे उसे कहें गंगा जल
जिसमें झुलस गए तुलसी दल
छुवन न जाने कैसी थी वह,
सुलग उठा छूते ही आँचल।
फूलों को शूलों के जैसी
देते हुए चुभन देखा है।