अकेली औरत / रश्मि विभा त्रिपाठी
अकेली औरत
कब रह पाती है अकेली
साथ उसके चला ही करती हैं
दो भूखी आँखें अकसर
आमंत्रण खोजतीं
जीवन तृप्ति की आस में
हर हाथ तत्पर
सांत्वनाएँ, संवेदनाएँ
काँधे छूने को आतुर
रहती हर दिन
वो सुर्खियों के शिखर पर
महफ़िलों में हरदम
हर एक की जुबाँ पर
रहती वो
मिसेज़ दुबे
विवाह-शास्त्र के
सिद्धांतों का पाठ पढ़ाने
यकायक उसके घर आ जातीं-
"भरोसे की डोर ही
उम्र-भर बाँधे रखती है
एक पंथ के दो साथियों को"
गर्दन गर्व के संग घूमती
इधर-उधर
अपनी गाथा सुनाते-सुनाते
खाली दीवार के पीछे
कोई तो होगा
अकेलेपन का साथी निश्चित
"घर बेहद करीने से सजा रखा है,
देखूँ तो"
उठकर बाथरूम में
टपकते नल की चंद बूँदों से
अपनी शंकाओं को धो जातीं
गली के नुक्कड़ की
टपरी पर पकती
चाय उसके ही नाम की
उड़ता खबरों का
गरमागर्म छल्लेदार धुआँ
चुस्कियों संग बातें उसी की
घोलकर पीते हैं रोज
एक अकेली औरत की फिक्र में
जीते हैं कितने सारे लोग
अकेली औरत
कब रह पायी है अकेली?
दहलीज के पार
कई पहरेदार
तैनात उसके लिए
हर कदम पर हर पल नजर
चौतरफ़ा घेरा
हँसके जरा किसी से बोली?
हा!!!
गूँज उठा महापाप पल में
धरा के इस छोर से
उस छोर तक
कुलटा-कुलक्षिणी की
उपाधियों का अलंकरण
मानती वह शुभ शगुन
रहने दें अब अकेले
निहारेंगे तो होगा अपशगुन
परन्तु पूर्वानुमान की
ज्यों रात बीती
सूर्य की प्रथम रश्मि
भोर के पहले पहर से
लग गया पहरा
उस अकेली औरत पे
चौखट पर पाँव धरते ही
वापसी तक चौकसी
चाक-चौबंद नज़रें
निरीक्षण करतीं
टकटकी बाँध
रवि प्रस्थान
सन्ध्या आगमन
रात्रि अब आने को है
तमाम सवालों के घेरे में कैद
वही मिसेज़ दुबे
दरवाजे से बाहर
झाँकतीं दोराहे पर
बाट जोहतीं परमेश्वर की
चिंताओं की
अनगिनत लकीरें
खिंची हुईं ललाट पर
बोझिल आहटों से कान
थका-मांदा ध्यान
खींचा एक झलक ने
और चंद कदमों के फासले पर
आती हुई वह
अचानक निस्तेज पड़ा चेहरा
अकेली औरत ने पढ़ी
पुन: इक बार
सम्बन्धों की सच्चाई
उन विस्मित आँखों में
झलका दूर से ही
‘साथ’
साथ सिर्फ़ होने भर का
सिर्फ़ सोने भर का
विश्वास का कहीं भी आँखों में
अदना सा नामो-निशान तक नहीं !