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घर का भेदी मूल / प्रेमलता त्रिपाठी

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मन के हारे कब उठे,मुरझाये ज्यों फूल।
मूढ़ मना कथनी करे,करनी जाये भूल ।।

बढ़े चंद्र हो पूर्णिमा, घटे अमावस रात,
क्षीण मनस को जानिए,रहे सदा प्रतिकूल


बिखर कहे यह चाँदनी,निर्मल रखिए भाव,
कली गली शृंगार कर, महके रजनी फूल।।

गरल बनाए अमृत को,छद्म वेश नादान,
ग्रहण लगाता राहु ज्यों,कुटिल न हों अनुकूल ।

अलग-थलग जो सदा रहे,अपनों से कर बैर,
देश विरोधी नीति से, मिटे सदा वे धूल ।

कातर मन सोचे कहाँ, मिले न कोई ठाँव,
भीतर घाती स्वयं की, हिला चुके हैं चूल ।

द्वेष प्रेम का सिल सिला,झेला हिंदुस्तान,
सदियों से ये सिद्ध है,घर का भेदी मूल ।