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कभी इतना क़रीब मत आना / रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह / प्रशान्त विप्लवी

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कभी इतना क़रीब मत आना
जितना क़रीब आने को क़रबी कहते हैं लोग
इस आँख से उस आँख के बीच रहना
एक बढ़े पैर के साथ जैसे चलता है दूसरा पैर
या समझो जैसे रेल लाइन के बराबर सोते हुए
अविराम बहा जा सकता है
जिन नज़दीकियों के बीच बिन्दु-मात्र की दूरी है
मेघ कन्या ! इतना क़रीब मत आना कभी
 
क़सम दे रहा हूँ मेघों के घर की, आकाश या किरण-पंक्तियों की
उससे बेहतर है दूर ही रहो
जिस तरह दूर रहता है छूने से स्पर्श
धूप के सीने से गर्मी
शीतलता से ऊष्णता
प्रेम के बेहद अन्तस में जैसे छुपी रहती है अन्तरंगता
उन्हीं दूरियों पर ठहर जाना –
एक इंच के लिए भी कभी कोई नहीं कह सकता
कितना क़रीब आई थी कि पृथ्वी दूरत्व का परिमाप नहीं दे पाई

मूल बांग्ला से प्रशान्त विप्लवी द्वारा अनूदित