मैं आ रहा हूँ / शिवनारायण जौहरी 'विमल'
मैं आ रहा हूँ
आ रहा हूँ, माँ
आ रहा हूँ मैं
गति से लगाता होड
चाहता हूँ मैं
तुम्हारी गोद मैं जलते
निरंतर हवन मेँ समीधा की तरह
डूब जाने के लिये
उसी की राख से निकला
उसी में समा जाने के लिए
कहते है यही क्रम
मिटने और जीने का चलता रहेगा
इस तरह ज़िंदगी को
म्रत्यु का वरदान जैसे मिल गया है
और मैं तो ज़िंदगी के रहा पर
चलते भटकते आ गया हूँ अब
आखरी उस जगह पर जहाँ
से म्रत्यु की दूरी खतम-सी हो गई है
हे माँ मैं मर कर भी तुंहसे
दूर हो पाउग नहीं
ये शरीर जलकर तुझी में मिल जायेगा
इस तरह म्रत्यु मुझे तुझसे अलग कर नहीं सकती
मैं तुम्हारी गोद में नय बीजो की तरह फिर से उठुगा
जैसे गेहूँ की बाल से टपकते बीज तेरी गोद में फिर फूल जाते है
सभी की माँ की तरह मेरी माँ भी तूही बनी रहेगी ये धरा
मेरी है मेरी ही रहेगी तू
कोई दूसरा इसको उठाकर अपनी जेब में रख नहीं सकता
हे माँ तुम्हारा प्यारे सूरज
की किरण जैसा चाँद की चाँदनी जैसा
मेरे अंग पर लिपटा रहेगा
और सारे रंग निचे तक चिपके
रहेगे बदन से
मैं हूँ तेरा
तेरे लिये ही जान दे दूगा
और हर सांस का श्र्रगार तेरे चरण पर निछावर कर दूगा
मैं आ रहा हूँ बस इसी भाव को अपने साथ ले कर॥