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यात्रा / अनुज लुगुन

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हम जो यहाँ तक पहुँचे हैं
उड़ते हुए
छलाँग लगाकर नहीं पहुँचे हैं

हम अपने तलवों को देखें
इनमें पुरखों के घाव हैं
हम अपने रास्ते को देखें
लहू रिस कर चले हैं
हमने स्कूलों की चौखट पर निषेध सहा है
स्लेट पर हम ‘मजदूरी’ लिख कर बढ़े हैं
रेंग रेंग कर हमने चलना सीखा है
गिर गिर कर खड़ा होना सीखा है

बन्दर से इनसान होने की प्रक्रिया में नहीं
इनसान से इनसान होने के लिए
हर जुलुम सहा है

हम जो यहाँ तक पहुँचे हैं
इतिहास की गर्दिश लेकर पहुँचे हैं
हम जो यहाँ से चलेंगे
इतिहास बदलकर चलेंगे
रोटी के रंग पर ईमान लिखकर चलेंगे।