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जैसे कभी / शंख घोष / जयश्री पुरवार

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जैसे इस धरती पर कभी किसी ने
प्रेम नाम का कोई ऋण रखा ही नहीं,
जैसे कभी किसी ने ताज़ा ओस को
सीने पर लेकर पूरब के समन्दर के नीले तट पर
पहली नारी को कभी देखा ही नहीं

नारी — जो आँखों की कोर के, हृदयतट के मूल के
दोनों किनारों को सराबोर कर देती है,
जैसे कभी कोई
गहरी धरती के गहन शिला पर
उसके चेहरे को रख आया ही नहीं !

जैसे केवल जल खम्भे की ओर दौड़ जाते है फूल
घट टूट जाता है और रह जाता है सिन्दूर का नाम
और बार-बार बजाता है हर सीने पर बेसुरी ताली
जैसे कभी
ऐसे नीरव कोमल पल्लव की तरह
कोई विनम्र प्रेमी था ही नहीं !