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देशान्तर / शंख घोष / जयश्री पुरवार
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उसके बाद
रास्ते भर बिना कोई बात किए
हम चलते रहे, चलते ही रहे
एक देश से दूसरे देश
एक घर्षण से दूसरे घर्षण की ओर ।
पृथ्वी तो ऐसी ही है ।
सोचता हूँ जीवित रहना होगा इसी के बीच ।
बरगद के पेड़ से लटकने वाली जड़ो की तरह हमारे,
मेरे — शरीर को घेरकर
कितनी कितनी अभिज्ञता उतर आई
अवलम्बनहीन । इतिहासविहीन ।
उसके बाद
भोर होने से कुछ पहले
सीमा रक्षक की गोली सीने पर आकर लगी —
मृत्यु से ठीक पहले
समझ भी नहीं पाया मैं
कि अपने शरीर का बलिदान किस देश पर कर दूँ ।