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आह! / कविता भट्ट

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आह! मन -वसुंधरा,
दिशा-दिगंत, कंदरा।
मंत्रमुग्ध से शिखर,
प्रेमगीत के हैं स्वर।

प्रकृति गीत प्रस्फुटित,
सुंदर सृष्टि हम निमित्त।
कोटि युग विकल हुए,
जाने कहाँ निकल गए।

आज पुनः वही दिवस-
भाव मन हुए यों सरस।
दृग प्रफुल्ल ये अब मेरे,
आलिंगनबद्ध जब तेरे।

उन्मुक्त राहगीर हो,
हिय में दबी पीर हो।
नैन सजल हो कोई,
वृक्ष सबल हो कोई।

सप्रेम निहारा मुझे-
किसने पुकारा मुझे-
अधर धरे मौन तुम?
सच कहो कौन तुम?