शान्ति दो मुझे / अन्द्रेय वज़निसेंस्की / श्रीकान्त वर्मा
शान्ति दो मुझे, मुझे शान्ति दो …
लगता है मैं थककर चूर हो चुका हूँ,
मुझे शान्ति दो …
गुजरने दो धीरे-धीरे
सिर से पैर तक, छेड़ती, सहलाती
पीठ को, यह लम्बी छाया इस चीड़ की ।
शान्ति दो हमें …
भाषा नहीं रही ।
क्यों करना चाहती हो तुम भौंहों का इन्द्रधनुष
शब्दों में व्यक्त । डोलती रहो केवल मौन में ।
शान्ति दो ।
धीमी है रोशनी से ध्वनि की रफ्तार :
आओ हम अपनी वाणी को विश्रान्ति दें
तय है कि जो भी ज़रूरी है, वह बेनाम है,
क्यों न हम सहारा लें अनुभव और रंग का ।
प्रिये, ये त्वचा की भी अपनी अनुभूतियाँ हैं,
उसमें भी है जान,
अँगुली का स्पर्श त्वचा का संगीत है
जैसे कानों के लिए बुलबुल का गान ।
कब तक करोगे घर बैठे बकवास ?
कब तक चिल्लाओगे बेमतलब ख़ून ?
कब तक उठाओगे सर पर आसमान ?
छोड़ दो अकेला हमें …
… हम अपने में तल्लीन हैं
लीन हैं प्रकृति की रहस्यमय दुनिया में,
धुएँ की कड़ुवाती गन्ध से भाँपते हैं हम
गड़रिये पहाड़ से वापस आ गए हैं ।
सांझ का झुटपुटा ब्यालू की तैयारी, धूम्रपान,
छायालिपियाँ हैं वे,
लाइटर की लौ की तरह
पालतू कुत्ते की जीभ लपलपाती है ।