भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अलविदा / अपअललोन ग्रिगोरिइफ़ / वरयाम सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:52, 6 जुलाई 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अलविदा, अलविदा, तुमसे भी, ओ मेरी सुबह,
अलविदा, ओ मेरी मातृभूमि के प्रिय पुष्प,
तुम्ही हो, प्यार रहा मीठा और कड़वा जिससे,
प्यार किया जिसे शेष बची ताक़त से ।

अलविदा, कुछ बुरा याद नहीं करना तुम,
याद न करना न पागल सपनों को, न कहानी-क़िस्सों को,
न इन आँसुओं को जिन्हें कभी-कभी
बहाना पड़ता रहा आँखों को ॥

अलविदा, देश से दूर जैसे निष्कासन में,
मीठे ज़हर की तरह ग्रहण करूँगा
विदाई के अन्तिम शब्दों को
उदास, देर तक निहारती आँखों को ।

अलविदा, अलविदा, स्याह पड़ गया है पानी,
दिल टूट चुका है बहुत भीतर से ...
तैरता जा रहा हूँ मैं दूर, बहुत दूर
अनदेखे शब्दों के पीछे, आज़ादी के शब्दों के पीछे ।

जून 1858, फ़्लोरेंस

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह

और लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
                    Аполло́н Григо́рьев
             Прощай и ты, последняя зорька

Прощай и ты, последняя зорька,
Цветок моей родины милой,
Кого так сладко, кого так горько
Любил я последнею силой…

Прости-прощай ты и лихом не вспомни
Ни снов тех ужасных, ни сказок,
Ни этих слез, что было дано мне
Порой исторгнуть из глазок.

Прости-прощай ты – в краю изгнанья
Я буду, как сладким ядом,
Питаться словом последним прощанья,
Унылым и долгим взглядом.

Прости-прощай ты, стемнели воды…
Сердце разбито глубоко…
За странным словом, за сном свободы
Плыву я далеко, далеко…

(Июнь 1858)
(Флоренция)