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कैशियर / अन्द्रेय वज़निसेंस्की / श्रीकान्त वर्मा

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चिल्लाती है गूँगी भीड़ :
"पैसे दबा दिए," गुर्राती है जनता ।
भूस के ढेर में पड़े हुए तमगों की तरह
सिक्के ।

चीख़ती है क्रोध में कैशियर लड़की —
"बन्द करो अपनी बक़वास । भाग जाओ ।" —
और गूँधे गए आटे की तरह वह
काँच के कटघरे से बाहर निकलती है ।

काउण्टरों पर, बिकते हैं जहाँ,
पनीर की रोटी, तरबूज़;
तैर गई आंसू और पाउडर की
एक अकस्मात गन्ध ।

तीखी थी आंसू की गन्ध
उस टुच्ची भीड़ में ।
गुर्राया ऊपर उठ हवा में
उस गूँगे दम्पती का हाथ ।

बेकन पकड़ अपनी मुट्ठी में
किसी ने क़सम खाई, या यह केवल मेरा
वहम है : जो भी हो, ऐसे दहाड़ा वह जैसे
बीथोवाँ संगीत, पार्थिव, उन्मुक्त ।

काँच के प्लेट पर उल्टी अँगुलियों और हथेली से
जैसे पैदा हो संगीत,
ठीक इसी तरह क्षुब्ध
गाती गुर्राती है मेरी यह गूँगी तक़दीर ।
सधी हुई नज़रों से देखती
कैशियर लड़की
ले जाती है बिल को रोशनी के नज़दीक
यह जानने के लिए कि लेनिन का चित्र ठीक-ठीक है या नहीं ?

मगर लेनिन का चित्र अब वहाँ नहीं :
वह बिल एक रसीद थी ।
रोज़मर्रा चीज़ों की वह एक दुकान
जहाँ लोग और धोखे जुटते हैं ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : श्रीकांत वर्मा