तेजाब से जली लड़कियाँ / प्रतिभा सिंह
क्या देख पाती हैं
फिर से हंसीन सपने?
उन अधजली आंखों से
जो कभी मृगनयनी-सी हुआ करते थे।
क्या अपने बदसूरत हो चुके गालों को
सहला पाती हैं कभीं
लजाकर
युवापन की कमनीयता से।
जिनपर कभीं सैकड़ों जवान लड़के
चुम्बन को बेताब थे।
सोचती हूँ,
वे जल चुके होंठ
जिनसे कभी मधुरस छलकते थे
अपनी ही उंगलियों के स्पर्श से
काँप न उठते होंगे?
खूबसूरत रेशमी बालों की जगह
अधजली खोपड़ी
कितनी भयावह दिखती होगी?
क्या ये लड़कियाँ कभीं आइना देख पाती होंगी?
या फिर नजर मिला पाती होंगी?
पूरे आत्मविश्वास के साथ
अपनी बदसूरत हो चुकी दुनियाँ से।
नहीं शायद, कभी नहीं।
क्योंकि
मृत्यु से बदतर जीवन पर
नर्तन करने की
जिजीविषा नहीं हो सकती
साधारण से मनुष्य में।
किंतु दूसरे ही क्षण
यह भी सोच लेती हूँ
कि कहाँ होती हैं
यह लड़कियाँ साधारण
जलने से पहले सौंदर्य की मूर्ति
और जलने के बाद
साहस की पराकाष्ठा
हाँ यही ठीक है,
इन लड़कियों के लिए।
क्योंकि,
यह मरकर भी मरती
नहीं
किसी नदी, कुँए में डूबकर
या फांसी के फंदे पर लटककर।
ये फिर भी जीती हैं
अपने हिस्से का
बदसूरत हो चुका जीवन
ख़ूबसूरतीं के साथ।
कि देखने वाला भी
स्तब्ध रह जाता है
इनकी जीवंतता से।
दरअसल
तेजाब से जली लड़कियाँ
जलती नहीं हैं जलकर भी
बिल्कुल
दहकते सूरज की तरह।