अलग होना / बरीस पास्तेरनाक
चौखट पर से देखता है आदमी
पहचान नहीं पाता घर को
उस स्त्री का जाना जैसे गायब हो जाना था
सब जगह बरबादी के निशान छोड़कर ।
अस्त-व्यस्त दिखता है सारा कमरा,
कितनी क्षति हुई
देख नहीं पा रहा वह आदमी
सिरदर्द और आंसुओं के कारण ।
सुबह से कानों में गूँज रहा कुछ शोर-सा
वह होश में है या देख रहा है सपना ?
क्यों आ रहे हैं विचार
हर क्षण समुद्र के बारे में ।
जब खिड़कियों पर लगे आले के बीच से
दिखाई नहीं पड़ता ईश्वर का संसार
दूर तक फैला अवसाद
दिखता हैं समुद्र की लम्बी निर्जनता की तरह।
प्रिय लगती थी वह
इतनी कि प्रिय लगती थी उसकी हर बात
जैसे प्रिय लगती हैं
समुद्र को अपनी लहरें, अपना तट ।
तूफ़ान के बाद लहरें
जैसे डुबो देती हैं बाँस को,
उसकी आतमा की गहराई में
चली गई हैं उसकी सारी छवियाँ
यातना भरे जीवन के उन दिनों में
जो विचार से भी परे थे
नियति के अथाह से
लहरें उसे उठा लाई थीं पास ।
असंख्य बाधाओं के बीच
ख़तरों से बचते हुए
लहरें उसे ऊपर उठाती रहीं, उठाती रहीं
और अन्तत: ले आईं उसे एकदम पास ।
और जब उसका यह चले जाना
सम्भव है एक ज़बरदस्ती हो
चबा डालेगा यह अलगाव
उसकी हड्डियों को अवसाद समेत ।
और आदमी देखता है चारों तरफ़
उस स्त्री ने जाने से पहले
उलट-पलट कर फेंक दिया है
अलमारी की हर चीज़ को।
वह टहलता है इधर-उधर
अंधेरा होने से पहले
बिखरे चीथड़ों, कपड़ों के नमूनों को
समेट कर रख देता है अलमारी में।
अधसिले कपड़े पर रखी सुई
चुभ जाती है उसकी अंगुली में
उस क्षण उसे दिखती है वह पूरी-की-पूरी
और धीरे-से रो देता है वह।