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नियाग्रा के प्रति / मृत्युंजय कुमार सिंह
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तुम्हारी आँखों में बहती
करुणा
वाणिज्य से बहकी
पुतलियों में उलझ कर
ऐसे अर्थहीन हो जाती है
जैसे पुल के नीचे
नाचती नदी का जल -
काला, भयावह,
आत्म हत्या को निमंत्रण देता
पाताल के गर्त्त में
गड़ता हुआ एक गह्वर
स्थिर, शांत, समाप्त -
एक समझ का कफ़न
इच्छाओं के उरोज को देता
एक असमर्थ उभार
अपनी अनुपस्थिति को
स्वयं ही हेरता
बार-बार
मैं अब भी दौड़ रहा हूँ
शून्य से संदर्भ तक
एक अंजुरी आँसू लिये
जो सींच सके
तुम्हारी करुणा।