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ब्रह्मपुत्र / मृत्युंजय कुमार सिंह

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हे ब्रह्मपुत्र,
तुम हमें निगल क्यूँ नहीं जाते?
किस्तों में रोने से अच्छा है
एक नीरव अँधेरी मृत्यु
जिसे ना जाने क्यूँ
तुम हमारे किनारों पर नहीं लाते;
लाते हो हर वर्ष
विभीषिका की वो बाढ़
जो ना केवल तत्व से तरल है,
उलीचता गरल है,
बल्कि मन भी उसका
एक पसीजता दलदल है.
सब कुछ या तो बह जाता है
या डूब जाता है,
कुछ इस बीच संघर्षरत
डूबता-उतराता है /
मानव- पशु - वनस्पति
दृश्य जितने भी उपहार,
लगता है देवताओं से हिलमिल
हमारी अग्निपरीक्षा को उद्धत,
तुम आये हो तैयार,
हमें बताने
वो सब दुर्भाग्य, वो सब संत्रास,
जो कपोलकल्पित तिलिस्म-सा
जकड़ गया है हमारी सारी आस /

हे ब्रह्मपुत्र
तुम हमें निगल क्यूँ नहीं जाते?
हर वर्ष, बचा-खुचा जीवन समेट
हम फिर से बो लेते हैं आशाएँ
तुम्हारे छोड़े उपजाऊ मिट्टी में
जो फसल और सपने
दोनों बड़ी तेजी से जनती है ;
अच्छी फसल और भले सपने
जैसे ही लगे पनपने
सपनों की बाती
लगी फसल की बेल में उलझने;
जब तक हम सम्भलते हैं
बीती विपदा पर हाथ मलते हैं ,
आकाश गड़गड़ा उठता है
तुम्हारी हरहराहट हमारे कानों में
किसी वर्ज्य ध्वनि की तरह बजती है/
तुमसे दो-दो हाथ करने को संकल्पसिक्त
सारे सरकारी उपक्रम
प्रवासी पक्षियों की तरह
जब भाग रहे होते हैं क्रम में
हमें संकेत मिल जाता है
कि कितना जी चुके हम भ्रम में /

हे ब्रह्मपुत्र
ये दोष शायद तुम्हारा नहीं
तुम्हारे पास भी
लगता है अब कोई चारा नहीं/
तुम्हें अपने पाश में बाँधे रखने वाले
सारे प्राकृतिक आवरणों का
तो हो गया है अपहरण,
जान-माल के स्वार्थ में
बुद्धिहीन, विवेकहीन, ज्ञानशून्य,
नहीं रहा कुछ भी स्मरण/
बड़गोहाईं, कलीता, फूकन,
हजारिका, मोहंता, बोरा
सबने चुराया थोड़ा-थोड़ा
मानव कि प्रजातियों ने अपने हित में
हर संसाधन को मोड़ा - जोड़ा /
शंकर के धर्म से
ना तो अब पेट पलता है
ना ही कामाख्या देवी के प्रताप से
तुम्हारा प्रलय टलता है;
राष्ट्र की सरकार की पीठ पर
विद्रूप कूबड़ की तरह बँधे हम
अपेक्षा करते हैं किसी करिश्मे का
जो हमारे सपने को जीवन से
ऐसे जोड़ दे
जैसे कि तुम
बेतरतीब उगे पहाड़ी जंगलों को
सजे सजाये चाय बगान से जोड़ते हो ,
सीढ़ीनुमा खेतों को समतल में मोड़ते हो.
डूबते सूरज के प्रतिबिम्ब से भी
कुछ रोशनी निचोड़ते हो,
अपने पाटों पर आश्रित जीवन में
उजाला बाँटकर
कालिमा को झाड़-छाँट कर
पी जाते हो सारा काला गरल
नीलकंठ की तरह विषपायी, सरल/

हे ब्रह्मपुत्र,
अब तुमसे क्या छुपाना
की लद गया वो ज़माना
जब तुम्हारी लहरों पर झूमती हवा
हमारे बाँस के झुरमुटों में
फूँक जाती थी बाँसुरी की सदा,
तुम्हारे अरूप ध्वनि और धुन
ने भरी हमारी जनजातियों में
संगीत के गुण,
भावना, बिहू, ज़िकीर,
सेरेंदा, सिफुंग, ढोल
सब में निहित जैसे
तुम्हारे भिन्न-भिन्न रूपों के बोल;
साहित्य, संगीत, संस्कृति
सब में झाँकता तुम्हारा विस्तार,
आवश्यकता से आविष्कार तक
सारी प्रेरणाओं और कृति
में दिखे तुम्हारा अनगिनत आकार /
फिर अकस्मात् एक मृत्यु की खबर
जैसे दबोच ले गयी
सारा स्नेह, सारी स्मृति/
मेरे पिता को, माँ को, मेरे सारे परिवार को
खींच कर ले गयीं तुम्हारी लहरें,
किसी चीनी ड्रागोन की तरह
जल और अग्नि दोनों ही मुँह से बरसाती
कुछ जलाती, कुछ को खा जाती;
मेरे पास बचा केवल
गले तक पानी में तैरता एक असमर्थ शरीर,
काँधे पर सवार ठिठका हुआ एक बालक
और पास ही जीवन से जूझता
बिहारी गुलमा अहीर,
जिसे यदि मैं अपना हाथ देता
तो अपने बच्चे को खोता,
सो मैंने उसे जाने दिया,
अपने परिवार की तरह,
सह लेगा मन
एक और वियोग, एक और विरह/

हे ब्रह्मपुत्र,
तुम हमें भी क्यूँ नहीं निगल जाते?
अपनी तरफ लुभाकर
प्रवासियों की एक असीम भीड़
जो आये तो थे कौड़ी के दाम बाज़ार में
पर बिकने लगे जब हज़ार में
तब अचानक
टेढ़ी हो गयी उनकी रीढ़/
लकड़बग्घों की तरह दुबक कर
बैठ गए घात में,
आदमी से दिखने वाले
नरभक्षी पशुओं के साथ में;
पहले गयीं हमारे पोखरों में
थिरकती मछलियाँ,
हमारे साथ पले निरीह गैंडे,
फिर हमारे आस-पास के बच्चे
अचानक आदमी के लहू में डुबोकर उंगलियाँ
चाटने लगे हमारा मुँह,
चारों और एक नरभक्षियों का समूह/
क्या करते हम?
किसको बचाते ?
भाषा, साहित्य या संगीत
या अपनी खोखली बाँस वाली भीत?
अपना अस्तित्व या समुदाय?
चारों और तो मची है हाय-हाय/

तुमने भी तो अपनी दिशाएँ बदल ली,
और काट कर पहाड़ों को बना दिया रेत,
हमें भी मिला था कुछ अशुभ-संकेत,
पर हम मानव,
क्या छोड़कर कहाँ जाते?
भीख माँगने के तरीके भी तो हमें नहीं आते.
एक भाषा छोड़कर
हमें कुछ बोलना भी नहीं आया,
ना कोई कुछ समझा,
ना हमें कुछ समझा पाया,
अखबारों की सुर्ख़ियों में भी
हमारा क़िस्सा नहीं आया/
अब हम अपने ही घर में
छुप-छुप कर मिलते हैं,
अपनी भोंथरी भाषा से
साहित्य के घाव सिलते हैं,
लकड़बग्घों के डर से रह-रह
झूठे साहस की पूँछ हिलाते है;
अपने लोगों का अवशेष
हाँडी में भर
हम अब भी करते हैं तर्पण
तुम्हारे घाटों पर/
तुम्हारा क्रोध और कोप भी
बस हम पर ही चला,
हम ही नेस्तनाबूद हुए
हमारा कुनबा ही जला /
हे ब्रह्मपुत्र,
तुम हमें निगल क्यूँ नहीं जाते?