भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हेली-सहेली / विशाखा मुलमुले

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:09, 25 जुलाई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विशाखा मुलमुले |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीठ से पीठ टिकाए
बैठीं हैं हेली-सहेली
सुन रही है
सुना रही है अपना दुःख-दर्द
मालूम है उन्हें,
मिलायेगी नजरें तो
पिघल जाएगा बचा हुआ हिम खंड
बढ़ जाएगा जलस्तर!

पीठ से पीठ टिका
वे बढ़ा रहीं हैं हौसला भी
बन रहीं हैं कमान—सी मेरुदंड का
एक मजबूत आधार
जैसी होती है, पतंग की कमान को
थामे दूसरी सीधी बांस की डंडी
ताकि,
उडान भर सके दोनों की जीवन रूपी पतंग
और छू सके आकाश!

पीठ से पीठ टिका
देख रहीं है संग साथ
दो दिशाएँ भी / दशाएँ भी
देख रहीं है पूरब और
देख रहीं है पश्चिम भी
सोच रहीं है
काश!
दुनिया की तमाम स्त्रियाँ भी
यूँ ही टिका लें पीठ से पीठ अपनी!