कायान्तरण / निकअलाय ज़बअलोत्स्की / वरयाम सिंह
किस तरह बदलता रहता है संसार,
और किस तरह बदलता रहा हूँ मैं स्वयं !
मुझे मात्र एक नाम से जानती है दुनिया
पर वास्तव में जिस नाम से जाना जाता है मुझे
वह मैं एक नहीं, एक साथ अनेक हूँ, और ज़िन्दा हूँ !
ख़ून जम जाए इससे पहले ही
मैं एक से अधिक बार मरता आया हूँ ।
पता नहीं, अपने शरीर से कितने शवों को
मैं अलग कर चुका हूँ !
यदि दृष्टि प्राप्त हो जाती मेरे विवेक को
क़ब्रों के बीच मेरे विवेक को दिखाई दे जाता मैं
गहराई में लेटा हुआ,
वह मुझ स्वयं को दिखाता
समुद्री लहरों के ऊपर झूलता हुआ,
अदृश्य देशों की ओर उड़ती मेरी राख दिखाता
राख, जो मुझे कभी बहुत प्रिय रही थी ।
मैं आज भी ज़िन्दा हूँ !
और अधिक पवित्रता, और अधिक पूर्णता से
अपने आलिंगन में ले रही है आत्मा
अद्भुत्त जीव-जन्तुओं की भीड़ को ।
जीवित है प्रकृति, जीवित हैं पत्थरों के बीच
अन्न और सूखी पत्तियों के भण्डार ।
जोड़ में जोड़, रूप में रूप ।
अपनी सम्पूर्ण वास्तुकला में संसार
जैसे बजता हुआ ऑर्गन, बिगुलों का समुद्र और पियानो
जो न ख़ुशियों में मरता है, न तूफ़ानों में ।
और जो मैं था वह सम्भव है पुनः
उग आए, समृद्ध कर दे वनस्पति जगत को ।
उलझे हुए, गुँथे हुए धागे के गोले को
खोलने की जैसे कोशिश करते हुए
हमें अचानक दिखाई दे वह
अमर्त्यता का नाम दिया जा सकता है जिसे,
ओ ! हमारे अन्धविश्वास !
1937
मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह
—
लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
НИКОЛАЙ ЗАБОЛОЦКИЙ
Метаморфозы
Как мир меняется! И как я сам меняюсь!
Лишь именем одним я называюсь,
На самом деле то, что именуют мной,—
Не я один. Нас много. Я - живой
Чтоб кровь моя остынуть не успела,
Я умирал не раз. О, сколько мертвых тел
Я отделил от собственного тела!
И если б только разум мой прозрел
И в землю устремил пронзительное око,
Он увидал бы там, среди могил, глубоко
Лежащего меня. Он показал бы мне
Меня, колеблемого на морской волне,
Меня, летящего по ветру в край незримый,
Мой бедный прах, когда-то так любимый.
А я все жив! Все чище и полней
Объемлет дух скопленье чудных тварей.
Жива природа. Жив среди камней
И злак живой и мертвый мой гербарий.
Звено в звено и форма в форму. Мир
Во всей его живой архитектуре —
Орган поющий, море труб, клавир,
Не умирающий ни в радости, ни в буре.
Как все меняется! Что было раньше птицей,
Теперь лежит написанной страницей;
Мысль некогда была простым цветком,
Поэма шествовала медленным быком;
А то, что было мною, то, быть может,
Опять растет и мир растений множит.
Вот так, с трудом пытаясь развивать
Как бы клубок какой-то сложной пряжи,
Вдруг и увидишь то, что должно называть
Бессмертием. О, суеверья наши!
—
1937