भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्मृतियाँ / निकअलाय ज़बअलोत्स्की / वरयाम सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:55, 2 अगस्त 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निकअलाय ज़बअलोत्स्की |अनुवादक=व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ गए हैं महीने झपकियों और आलस के ...
पता नहीं ये ज़िन्दगी गुज़र चुकी है
या अपना काम पूरा कर
देर से आए मेहमान की तरह बैठ गई है मेज़ के पास ।

वह पीना चाहती है पर सुरा पसन्द नहीं उसे
खाना चाहती है पर मुँह तक उठा नहीं पाती एक भी ग्रास ।
सुनती है वह रीबिनिया की फुसफुसाहट,
सुनती है खिड़की के बाहर सोनचिड़िया की चहक ।

वह गा रही है दूर के उस देश के बारे में
जहाँ बर्फ़ीले तूफ़ानों के बीच
मुश्किल से दिखाई देता है क़ब्रिस्तान का टीला
स्फटिक की तरह सफ़ेद बर्फ़ से घिरा ।

कुछ नहीं कहता जवाब में भुर्ज का पेड़
बर्फ़ में डूबा होता है उसका तना
उसके ऊपर पाले के घेरे में
तैर रहा होता है ख़ून सना चन्द्रमा ।

1952

मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह

लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए

         НИКОЛАЙ ЗАБОЛОЦКИЙ
                Воспоминание

Наступили месяцы дремоты…
То ли жизнь, действительно, прошла,
То ль она, закончив все работы,
Поздней гостьей села у стола.

Хочет пить — не нравятся ей вина,
Хочет есть — кусок не лезет в рот.
Слушает, как шепчется рябина,
Как щегол за окнами поет.

Он поет о той стране далекой,
Где едва заметен сквозь пургу
Бугорок могилы одинокой
В белом кристаллическом снегу.

Там в ответ не шепчется береза,
Корневищем вправленная в лёд.
Там над нею в обруче мороза
Месяц окровавленный плывёт.

1952 г.