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राह हमारी / निकअलाय रेरिख़ / अनिल जनविजय

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राही हैं हम गुज़र रहे हैं, दूर गाँवों की राह
छोटे-छोटे घर पार करें खेत, वन,चारागाह 
पशुओं के झुण्ड चरा रहे हैं बच्चे चरवाहा
देख हमें भागे आते हैं रखे मन में कुछ चाहा

एक बालक ने दी हमें बेरियों की एक डाल
दी बालिका ने घास सुगन्धित झोली से निकाल
एक छोटे बच्चे ने दे दी अपनी प्यारी लाठी
बेहद सुन्दर औ’ जिसकी सीधी थी पूरी काठी

सोचा उसने मदद करेगी, राह पार करने में
और हमें भला लगेगा आराम रहेगा चलने में
गुज़र गया वह गाँव भी, सब छूट गया पीछे
इन बच्चों से मिलना न होगा, वो रह गए नीचे

थोड़ी दूर चले थे हम उन उपहारों के साथ
लगा हमें बेकार हैं ये, क्यों भरे हुए हैं हाथ
दूब सुगन्धित बिखरा दी हमने वहीं सरे राह
बेरी की डाल भी छोड़ी, ख़ाली हो गई बाँह

लाठी फेंकी खाई में वहीं सड़क किनारे  
बेकाम की चीज़ है वो मन में था हमारे
बच्चों ने दी थी हमें अपनी जो क़ीमती चीज़ें
राह सहज करती थीं, पर हम उनसे खीजे

1917

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय

लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
          Николай Рерих
              Наш путь

Путники, сейчас мы проходим
сельской дорогой. Хутора чередуются
полями и рощами. Дети заботятся
о стадах. К нам дети подходят.
Мальчик нам подал чернику
в бересте. Девушка протянула
пучок пахучей травы. Малыш
расстался для нас со своей
в полоску нарезанной палочкой.
Он думал, что с нею нам
будет легче идти. Мы проходим.
Никогда больше не встретим
этих детей. Братья, мы отошли
от хуторов еще недалеко,
но вам уже надоели подарки.
Вы рассыпали пахучую травку.
Ты сломал корзиночку из бересты.
Ты бросил в канаву палочку,
данную малышом. К чему нам
она? В нашем долгом пути.
Но у детей не было ничего другого.
Они дали нам лучшее из того,
что имели, чтобы украсить
наш путь.

1917 г.