Last modified on 15 अगस्त 2022, at 00:14

गीत मुखरित हो कब / शुभा द्विवेदी

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:14, 15 अगस्त 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शुभा द्विवेदी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

डूब रहा क्षितिज के पार सूरज
निस्तेज सा, सुर्ख लाल
डूब रही हूँ मैं इसी सूरज के साथ जलते जलते
अपने अंतर्मन के सागर में
कैसी जीवन गति है?
अस्ताचल की और बढ़ते सूरज सी
देख रही हूँ
शाम के धुंधलके में डूबे हुए शक्ति का आभास देते हुए
दूर वृक्षों की अनगिनित कतारों को
और मैं, मैं लिख रही हूँ मन को सफ़ेद कागज पर
उतरती हुई स्याही या गहरी भावनाएँ
नहीं जानती
अनायास ही पूछा मन के किसी कोने ने
"गीत लिख रही हो"
कहा गीत मुखरित हो कब
जब शब्द ही विलीन हो चुके हैं
यादों का झरना, झरने लगा पूरे वेग से।