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गीत मुखरित हो कब / शुभा द्विवेदी

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डूब रहा क्षितिज के पार सूरज
निस्तेज सा, सुर्ख लाल
डूब रही हूँ मैं इसी सूरज के साथ जलते जलते
अपने अंतर्मन के सागर में
कैसी जीवन गति है?
अस्ताचल की और बढ़ते सूरज सी
देख रही हूँ
शाम के धुंधलके में डूबे हुए शक्ति का आभास देते हुए
दूर वृक्षों की अनगिनित कतारों को
और मैं, मैं लिख रही हूँ मन को सफ़ेद कागज पर
उतरती हुई स्याही या गहरी भावनाएँ
नहीं जानती
अनायास ही पूछा मन के किसी कोने ने
"गीत लिख रही हो"
कहा गीत मुखरित हो कब
जब शब्द ही विलीन हो चुके हैं
यादों का झरना, झरने लगा पूरे वेग से।