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रे मन क्या जल पायेगा ऐसे / शुभा द्विवेदी

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रे मन क्या जल पायेगा ऐसे
भीतर मचते कोलाहल के मध्य शांति फैला पायेगा सभी में
स्वयं से कठोर होकर क्या सरल हो पायेगा सभी के लिए
असंतुलन में साधना है संतुलन
विषम में होना है सम
प्रतिकूल को बनाना है अनुकूल
सम्यकता कठिन है न
।देनी होगी स्वयं की आहुति
स्वाहा करना होगा निज
देखनी होगी समष्टि
समझना होगा की जीवन एक हवनकुंड है,
न रोना है न खोना है न सहना है सिर्फ और सिर्फ जलना है स्वयं में
ध्यान रखना है कि ये ताप निज के लिए हो
सबके लिए बहो शीतल बयार की तरह
हवनकुंड में धूप के जलने से उठने वाली सुगंध की तरह
जो सभी के मन को शुद्ध और पवित्र कर सके.