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उम्मीद / भावना शेखर
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कंटीले झाड से गड़े
लफ्ज़ों के नश्तर
जहां भर के तंज़ों ने
कोंच कोंच कर
पस्त किया होंसलों को
तुम हार चुकी हो.. हार चुकी हो
कोशिशें तमाम नाकाम हो चलीं
तभी
शिकस्तों की भीड़ में
हौले से मेरा दामन खींच कर
फुसफुसाकर
कहा उम्मीद ने
और एक बार और एक बार