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विधि निषेध / भावना शेखर

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मुझे बनना है तुम्हारी तरह
बोलने हैं
करधनी में लटकी
रुनझुन घंटियों जैसे
छोटे-छोटे झूठ

चुराने हैं अधिकार
पंजों के बल उचक कर
सूरज के छींके से

लपेटना है
चांद का झीना आवरण
नाभि के नीचे

लांघनी है रेखाएं निषेध की
नहीं दूंगी अधिकार लक्ष्मण को
क़ैद करने का,
नहीं बनना अहिल्या द्रौपदी सीता
नहीं बनना प्रशस्ति पत्र
या
फ्रेम में जड़ी मर्यादा।

दिखाना है अंगूठा रस्मों को
जो हराती रहीं बार-बार,
बुझानी हैं लपटें अग्नि कुंड की
जैसे तुम बुझाते रहे बार-बार
शपथ तोड़कर।

चाहिए मुझे इस बार
दो चार पंख
मुट्ठी भर हौंसला
और
क़तरा भर आजादी।