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गुमराह हम हुज़ूर / ज्ञानेन्द्र पाठक

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गुमराह हम हुज़ूर बहुत दिन नहीं रहे
अपनी जड़ों से दूर बहुत दिन नहीं रहे

सदियों में जानवर से हम इंसाँ बने मगर
वहशत की ज़द से दूर बहुत दिन नहीं रहे

उस आख़िरी बुज़ुर्ग के जाने के बाद फिर
घर के अदब शऊर बहुत दिन नहीं रहे

जिनको गुमाँ था अपने जवानी के दौर पर
वो सब गुमाँ में चूर बहुत दिन नहीं रहे

बहके हमारे दिल भी फ़सादों के दौर में
दिल में मगर फ़ितूर बहुत दिन नहीं रहे