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वेताल / गीता शर्मा बित्थारिया

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स्त्रियां अक्सर
अपने कंधों पर
ढोती है अपने स्वप्नों की
पार्थिव देह
महसूसती हैं
अहिर्निश उसका
अनीर्वहनीय भार
कभी कभी
उतार कर रख देती हैं
एक अहाते में
नि:शब्द
इस अनायास भारहीनता से
टिकते नहीं है
ज़मीन पर उनके पांव
मगन हो
गाने लगती हैं
अपनी मन की भाषा में
कोई मधुर गान
उनके बोलते ही
गायब हो जाता है
वेताल
और पुनर्जीवित हो उठते हैं
उनके कई मृत स्वप्न
वो रंगने लगती
अपने रंगहीन पड़े कैनवास
रूढ़ प्रारूप के गुरुत्वाकर्षण से
बाहर निकलते ही
उनके पंख फड़फड़ाते स्वप्न
लेने लगते हैं
स्वत्तन्त्र और गहरी श्वांस
वो उड़ने लगती हैं
भारहीन होकर
नर्तन करने लगती हैं
उनकी आत्मा
स्वप्न लोक में
द्वार पर खड़ा रहता है
तालबद्ध वेताल