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सन्यास नहीं लेती हैं स्त्रियाँ / गीता शर्मा बित्थारिया

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सुनो प्रिय बुद्ध !
तुम सिद्धार्थ से
बोधिसत्व बुद्ध हुए
वो यशोदा बन
पालती रही
तुम्हारा वंश
तुमने गृहस्थी त्याग
तप तपस्या चुनी
और वो गृहस्थी में
तपस्या सृदश्य
रमी रही

सुनो यतिराज!
तुमने कभी
साझा नहीं किए
अपनी तप साधना
के पुण्य प्रतिसाद
और वो
निभाती रही
तुम्हारे हिस्से के
उत्तरदायित्व भी
मौन साधे
पटाक्षेप के पश्चात
किसी भुला दिए गए
पात्र के समान

सुनो युवराज!
शायद
तुम निर्मोही से
त्याग देते हो
सौंप सकते हो
पीछे छूटी किसी स्त्री हाथ
अपना रचा बसा संसार
इसीलिए सदियों से
तुम्हें ही मिला है
बुद्ध होने का अधिकार
पर क्या तुम जानते हो
बुद्ध होना स्त्री होने से
अधिक सरल है?

सुनो सिद्धार्थ!
दुख के दर्शन मात्र से ही
सन्यास नहीं लेती हैं स्त्रियां
यूं अचानक
छोड़ कर
घर संसार
बिना बताए
कर नहीं पाती
महा प्रस्थान
वो भोगती हैं
सहती रहतीं हैं
अपने और पराए दुख
पर बैठने को
मिलता नहीं
कोई बोधि वृक्ष
जिसकी छाया में
एकांत मौन साध
खोज ले
अपने पराए दुखों का अंत उपाय

सुनो तथागत !
उन्हें पता होते हैं
दुख और उनके कारण
कदाचित दुख से निवारण भी
वो बताना भी चाहती हैं
अपने अनुभूत असंख्य दुख की
सदियों से अनवरत जारी
सामूहिक नियति की
पुरानी गाथाओं को
पर कोई जानना ही
नहीं चाहता
उसके उसके टूटे
बिखरे सपनों के
आख्यान
उन्हें कभी मिल ही नहीं पाता है
तुम्हारे जैसा सारनाथ

सुनो बोधिसत्व!
उन्हें दुख खोजना नहीं पड़ता
दुख स्वयं ही खोज लेता है
बिना याचना के चला आता है
उनके पास फिर भी
सन्यास नहीं लेती हैं स्त्रियां
संसार में रहते हुए
स्वयं सिद्धा सी
अपने घर के किसी
कोने में बैठ खोज लेती हैं
अपना हिस्से का बुद्धत्व
और फिर किसी दिन
"बुद्धम शरणम् गच्छामि"
कहते हुए
चुपचाप पा लेती हैं
अपने दुखों से
अंतिम महानिर्वाण