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स्मृतियों का मौन रुदन / गीता शर्मा बित्थारिया

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एकांतवास पाए
स्मृतियां रहतीं हैं
मन के अंदर एक और मन में
जीती जागती
ज्यों बहती है एक पूरी नदी
धरती के भीतर ही भीतर
उसका कोई तट नहीं
जहां बैठ कोई
सुन सके उसकी आर्द नाद
कई बार तटबंधों को तोड़
अपनी सीमाएं लांघ
बह निकलने को तत्पर
आंखों की कोर पर ठहर
करती है
निरर्थक प्रयास
कि कोई ऐसा जो
रोक दे
इस आत्मप्लावन को
और मुक्त कर दे
इसमें डूब रही पीड़ाओं को
पर रेगिस्तान के नीचे
बह रही नदी का प्रारब्ध पाए
लौट जाती है
फिर से उसी अंधे कुएं में
अन्दर बैठी रूदाली
के साथ करती हैं
अनवरत निशब्द
करुण क्रंदन
प्रवाहित रहता है
स्मृतियों का
मौन रुदन