मैं पेड़ हूँ / गीता शर्मा बित्थारिया
कभी शीत
कभी शुष्क
लहर बन
बहती रही हवा
बदलते रहे
मेरे ही पत्तों के रंग
संग मेरा पा
जो कभी हरे थे
समय के थपेडों से
सूख गए हैं जरा
अब उन्हें मंज़ूर नहीं
मुझसे यूं जुड़े रहना
राह अपनी निजी
चुन रहे हैं
देखो मेरे पत्ते
मेरे रिश्तों की तरह
झड़ रहें हैं
पर मैं पेड़ हूं
मुझे कहां आता
मौसम के मिज़ाज से
बदल जाना
अपनी जमीं छोड़
कहीं और चले जाना
जड़ें गहरी कर
मैंने पाई है नमी
और हवा के रुख से भी
तटस्थ रह कर
निभाई है
अपनी मैत्री
ज्ञात है मुझको
ऋतु बदलेगी
पीर भुला
फिर उगाने होंगे
नए पात
बिना किसी राग के
हर बार
बसन्त आयेगा तो
करना होगा
वसुधा का श्रृंगार
जानती हूं
कि जब छाएगा
अतरंगी पतझड़
छूट जायेगा
मेरे प्रिय पातों से जुड़ा
मेरा सहचर
पर सिर्फ पत्ते ही
तो नहीं होता पेड़
उससे जुड़ी होती हैं
शाखाएं और मिट्टी
चिड़िया और उसके नीड़
आसमान और सूरज चाँद
नदी ताल के तट बंध
धरती के नीचे का पानी
हवायें और बदलती ऋतुएं
बार और त्यौहार
हर आती जाती श्वांस
पेड़ स्वयं के लिए
कहां जीता है
अपना सत्व साधे
ध्यान रखना होता है उसे
अपने आस पास पनप रहे
प्रेम बीज का
मृदु फल की आस पाले
विभुक्षु का
गर्मी बारिश में छांव तलाशते
पथिक का
ऋषियों के लिए यज्ञ
समिधा का
ज्ञान की खोज में निकले
तथागत के लिए बोधि वृक्ष का
मोक्ष शुभेक्षु को
देह बंधन से मुक्ति देती अग्नि का
सृष्टि ने सौंपे हैं कितने ही
महत कार्य
मुझे रचना ही होता है संसार
मैं धरा द्वार का स्वास्तिक
मैं जीवन की आश्वस्ति
मैं भविष्य संतति की कोख
घर आंगन में फलती फूलती
सूखी तो चूल्हे की लकड़ी
कटी तो बन दी जाती हूं
घर परिवार की चौखट
मर कर भी नहीं छोड़ती
अपना घर आंगन
मैं स्त्री हूं
हां मैं पेड़ ही तो हूं
स्त्री और पेड़
पर्यायवाची ही तो हैं