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नमक स्वादानुसार / गीता शर्मा बित्थारिया

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कई बार जब किसी
सरकारी तंत्र को
बड़ी से दुनिया में
अपनी छोटी-सी दुकान
रेहठी पटरी पर लगाए
किसी मेहनतकश पर
डंडा फटकारते
हुए देखती हूँ
मन होता है
जोर से बोल दूं सुनो
नमक स्वादानुसार

कई बार जब
शासन व्यवस्था
से जूझते
कोई लाचार
हताश हो
तोड़ देता है दम
पत्थर के दरवाज़ों पर
सिर पटक-पटक कर
मैं बोलना चाहती हूँ
स्वयं को भाग्य विधाता
समझने वाले सत्ताधीशों के वर्ग से
सुनो नमक स्वादानुसार

राह चलते
कहीं से गुजरते
किसी घर से किसी
औरत के रोने को
और किसी आदमी के
चीखने की आवाज़
हिला देती है जज़्बात
मैं दरवाज़ा खटखटा कर
जोर से चिल्ला कर
बोल देना चाहती हूँ
इस बार कि
सुनो नमक स्वादानुसार

कितनी बार
जब मुझे कह देना चाहिए था
कई बार होता है कि
मैं भी कहना चाहती हूँ
किसी से
चाह कर भी शब्द
निकलते नहीं बाहर
घुट कर तालू से
चिपक कर
अटक अटक
दम तोड़ देते हैं
मेरी कायरता
देखती है
कातर निगाहों से
जब जब मुझे
कहना चाहिए था
पर नहीं कह पाई
किसी अताताई से
क्योंकि मैंने भी
यही तो सीखा है
लड़की होने के नाते
सदियों से
नमक स्वादानुसार

मुझसे कहा तुम
जोर से मत बोलो
जोर से मत हंसो
बाहर मत झांको
यहाँ वहाँ मत घूमो
सुनो लड़की हो
जानो अपनी
सीमा रेख
जो करते हैं सीमांकन
स्त्रियों के सपनों के
तय कर देते हैं
उनके प्रेम का रंग
बोल देना चाहती हूँ
उन सब अधिनायकों से
इस बार
कि सुनो नमक स्वादानुसार

पुनश्चः यहाँ नमक को अकड़
और स्वादानुसार को औकातानुसर
पढ़ा जाए