भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन की वीणा / रश्मि विभा त्रिपाठी

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:35, 8 सितम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रश्मि विभा त्रिपाठी }} {{KKCatDoha}} <poem> 1 म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1
मन की वीणा पे हुआ, स्वत्व तुम्हारा मीत।
धड़कन में तुम गूँजते, बनकरके संगीत।।
2
जोड़ दिया तप से सदा, मन का टूटा तार।
मेरी साँसों का तभी , बजने लगा सितार।।
3
पढ़ लेते इक साँस में, इन होठों का मौन।
सच बतलाओ आज ये, आखिर तुम हो कौन।।
4
तुम्हें जुबानी याद है, मेरा सारा हाल।
भाव तुम्हारे हो गए, अब गुदड़ी के लाल।।
5
जीवन में अब क्या बचा, टूट गई हर आस।
साँस तुम्हीं पर ही टिकी, तुम रखना विश्वास।।
6
नीरवता में हास का, बज उठता है साज।
जिस पल आकर तुम मुझे, देते हो आवाज।।
7
तुमने समझाया मुझे, जीवन का यह मूल।
मौसम ने डपटा बहुत, डरा न खिलता फूल।।
8
बड़े बेतुके लग रहे, राहों के ये शूल।
मेरे गजरे में गुँथे, आशीषों के फूल।।
9
प्रियवर तुम जीते रहो, खिलो सदा ज्यों फूल।
जग- जंगल में ना चुभे, तुमको कोई शूल।।
10
पता नहीं कैसी खिली, अब दुनिया में धूप।
पलक झपकते बदल रहा, सब रिश्तों का रूप।।
11
जग- जंगल में मैं चलूँ, पकड़े तेरा हाथ।
विपदा दम भर रोक ले, छोड़ूँगी ना साथ।।
-0-