भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उम्मीद चिनगारी की तरह (कविता) / कौशल किशोर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:14, 26 सितम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कौशल किशोर |अनुवादक= |संग्रह=उम्म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह जो हो रहा है
हम नहीं कर सकते इसे बरदाश्त

हमने तो रोशनी चाही थी
उजाले के हम सिपाही
किरणों की अगवानी में थे
हमारे होठों पर था साहिर का गीत
'वो सुबह कभी तो आएगी'
हम गाते-वह सुबह हमीं से आएगी

पर यह क्या?

धुंध ही धुंध
धुआं ही धुंआ
यह कैसा अंधेरा
कितना घना?
जो गा रहे थे,
वे अचानक चुप क्यों हो गये?
क्यों बन्द हो गई साज की आवाज?
यह रुदन, यह घुटन क्यों?

जो विरोध में थे, वे तरल हो बहने लगे
इस ढलुवा सतह पर लुढ़कने लगे
अपना तल तलाशने लगे
क्या इतना तरल हो सकता है विरोध?

यू आर अनन्तमूर्ति ने जो कहा था
क्या वह सही कहा था?
उन्हें धमकी भरी तजवीज दी गई
वे देश छोड़ चले जाएँ
वीजा ले लें
अब तो यह तजवीज उन सब के लिए है
जो उनके साथ नहीं
हवा में सनसना रही हैं धमकियाँ ही धमकियाँ
गांव छोड़ दो
मोहल्ला छोड़ दो
शहर छोड़ दो
देश छोड़ दो
चले जाओ
पाकिस्तान चले जाओ
जैसे यह देश उनके बाप का है

मैं पुरजोर कहता हूँ
मिलजुल कर बनाया है हमने यह देश
इसकी मिट्टी में हमारे पुरखों की हड्डियाँ गली हैं
हम रहेंगे, यही रहेंगे
भले ही निराशा हमलावर हो गई है
और उम्मीद भूमिगत

पर यह उम्मीद ही है
हाँ, हाँ उम्मीद ही है
जो राख के इस ढेर में
कहीं बहुत गहरे चिन्गारी की तरह
अब भी सुलग रही है।