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किसान पिता / महेश कुमार केशरी

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पिता, किसान थे
वे फसल, को ही ओढ़ते
और, बिछाते थे

बहुत कम पढ़े-लिखे
थे पिता, लेकिन गणित
में बहुत ही निपुण हो
चले थे

या, यों कह लें
कि कर्ज ने पिता
को गणित में निपुण
बना दिया था ।

वे रबी की बुआई
में, टीन बनना चाहते
घर, के छप्पर
के लिए

या फिर, कभी तंबू
या, तिरपाल, वो
हर हाल में घर को
भींगनें से बचाना चाहते
थें

घर, की दीवारें,
मिट्टी की थीं, वे दरकतीं
तो पिता कहीं भीतर से
दरक जाते

खरीफ में सोचते
रबी में कर्ज चुकायेंगे
रबी में सोचते की खरीफ
में

इस, बीच, पिता खरीफ
और रबी होकर रह जाते ।

उनके सपने, में, बीज, होते
खाद, होता ।

कभी, सोते से जागते
तो, पानी-पानी चिल्लाते

पानी, पीने के लिए नहीं
खेतों के लिए
उनके सपने, पानी पर बनते
और, पानी पर टूटते

पानी की ही तरह उनकी
हसरतें भी क्षणभँगुर होती

उनके सपने में, ट्यूबल होता,
अपना ट्रैक्टर होता
दूर-दूर तक खडी़
मजबूत लहलहाती हुई
फसलें होती ।

बीज और खाद, के दाम
बढ़ते तो पिता को खाना
महीनों
अरुचिकर लगता

खाद, और बीज के अलावे,
पिता और भी चिंताओं से
जूझते

बरसात में जब, बाढ़
आती, वो, गाँव के सबसे
ऊँचें, टीले पर चढ़ जातें

वहाँ से वह देखते पूरा
पानी से भरा हुआ गाँव
माल-मवेशी
रसद, पहुंँचाने, आये हैलिकॉप्टर
और सेना के जवान

उनको, उनका पूरा
गाँव, डूबा हुआ दिखता

और, वे भी डूबने लगते
अपने गाँव और परिवार
की चिंताओं में

बन्नो ताड़ की तरह
लंबी होती जा रही थी
उसके हाथ पीले
करने हैं

भाई, शहर में
रहकर पढ़ताहै, उसको
भी पैसे भेजने हैं

बहुत, ही अचरज की बात है
कि, वे जो कुछ करते
अपने लिए नहीं करते

लेकिन, वे दिनों-दिन
घुलते जातें। घर को लेकर
बर्फ, की तरह पानी में

और, बर्फ की तरह घर
की चिंता में एक दिन
ठँढे होकर रह गये पिता!