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बेरोजगार संतानों के बूढ़े पिता / आलोक कुमार मिश्रा

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कुछ बूढ़े बने ही रहते हैं
आजीवन जवान
अमरत्व के किसी वरदान से नहीं
बस हर सुबह-शाम बनी ही रही
मजबूरियों की बूटी निगलकर

जिंदगी उनके लिए दरअसल एक भारी पहाड़ होती है
जिसे ठकेलने, खिसकाने, तोड़ने में
वे जुटे ही रहते हैं

जवान बेरोजगार संतानों के बूढ़े पिता
कुछ ज़्यादा ही पिता होते हैं

उनकी आँखों में उम्मीद की बहती नदी
कभी सूखती तो नहीं
हाँ रोज कुछ सिकुड़ती जरूर है
जब भी उनमें उतरती है अपने बेरोजगार संतानों की छवि

जितनी तड़प जितनी शिद्द्त
जितना अबोला जितनी नाउम्मीदी
भेदती जाती है घर के ज़र्रे-ज़र्रे में
उतनी ही खींच कर सीधी करते हैं वे बूढ़े
अपनी झुकती रीढ़ की हड्डी
तानते हैं आशाओं और आशीषों की और घनी छाया

वे घर से ज़्यादा टिकते हैं
खेतों में ऑफिस में दुकान में चाय या पान की गुमटी में

उन्हें उपजाना होता है और अन्न
कमाना होता है और पैसा
लगाना होता है और जोर
जीना होता है और कई बरस
अपने लिए नहीं
अपने बेरोजगार संतानों को टूटने से बचाने के लिए
जिंदगी में कभी न हार मानने का फलसफ़ा बताने के लिए

वे अक्सर दुहराते हैं अपने दुर्दिनों की कहानी
गोया केवल यही मुश्किल दिन नहीं काटे उन्होंने
वे सुनाते हैं अपने पिता और उनके भी पिता के किस्से
कि कैसे मुश्किलें थीं उनके भी हिस्से
 
ऐसे बूढ़े पिता अक्सर निहारते हैं
सूनी आँखों से आसमान
ढूँढते हैं उसमें अपने खो गये सपने
वे महीनों नहीं टिकाते नजर अपने बेरोजगार संतानों के चेहरे पर
क्योंकि उन पर दिखती है उन्हें अपने सपनों की टंगी लाश

लाचारी से उन्हें सख्त नफ़रत होती है
मर-मर कर भी मरना मुल्तवी रखते हैं
बेरोजगार संतानों के पिता।