भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे पास वाली सवारी / देवनीत / रुस्तम सिंह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:50, 11 अक्टूबर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवनीत |अनुवादक=रुस्तम सिंह |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ग़रीबी
कहीं-कहीं
मुझे अच्छी भी लगती है
बुल्ले के चूल्हे जैसी
दीवाली वाले दिन भी
शाम तक रिक्शा चलाती
आती है
पच्चीस का पऊआ ले
दो की कलई, सात के खाण्ड-खिलौने, दस के पटाखे
रिक्शे में धरी आती
अपनी किंगडम
पर आज
पता नहीं कब बस में
मेरे साथ वाली सीट पर आ बैठी है ग़रीबी
सादा साड़ी में लिपटी
साड़ी में किस ने किस को पहना है
अपनी टिकट वाली सीट पर
सिमटी हुई बैठी है
केला छीलने से हिचकिचाती
का चेहरा देखता हूँ मैं
मुझे कवि होने से डर लगता है ।
मूल पंजाबी भाषा से अनुवाद : रुस्तम सिंह