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जो स्वप्न से जगे नहीं / विनीत मोहन औदिच्य

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जो स्वप्न से जगे नहीं, सोते रहे सभी
जीवन भरा अज्ञान से, समझे नहीं कभी
वो कर्महीन ही रहे, घन अंधकार था
बस वासना के शोर का, मन में विकार था।

शव के समान ही रहे, थे शून्य जो विवेक से
वो पाप सम उदित हुए, रोगी अनेक के
गहने उधार के लिए, चमका वदन कहाँ
ईश्वर समान जो बने, बचता न फिर यहाँ।

थे लिप्त निम्न कर्म में, यह बात सच रही
अपराध की सजा मिली, तो यंत्रणा सही
जो घाव थे समाज के, जीवित नहीं रहे
परिवार भी विलग हुआ, दो शब्द ना कहे।

इस मर्त्य लोक में सदा, सत आचरण करो ।
अच्छाइयाँ समेट कर, गागर नई भरो ।।