रोता हुआ बेदमजनूँ / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल
आहिस्ता - आहिस्ता बहती है नदी ।
सतह के आईनावार सुकून में गिरते - बिखरते
बेदमजनूं के बेतरह बालों तक से बेनियाज ।
एक बाजू डालियों और शाख़ों को काटती - छाँटती हुई
उनकी शमशीरें
आफ़ताबे - सरे - शाम में लाल रिसाला<ref>Red Cavalry - लाल घुड़सवार सेना, रूस की बलशिवीक क्रान्ति से सन्दर्भित</ref>
नुमूदार होता है !
यक् ब यक्
सीधे ज़मीन पर आ गिरे
किसी ज़ख़्मी परिंन्दे की तरह
एक सवार हिलता - डुलता हुआ
ज़मीन पर आ रहता है ।
न कोई आह - कराह , न कोई चीख़ - चिल्लाहट
यहाँ तक कि
घोड़ों को सरपट दौड़ाते आगे बढ़ते
अपने घुड़सवार दोस्तों को मुख़ातिब एक पुकार भी नहीं ।
डबडबाई आँखों , बेचारगी और बेगानगी के दर्म्यान
ताकता रहता है वह
दूर से चमकते और ग़ायब हो जाते हुए घोड़ों के सुमों को
' कोई उम्मीदबर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती ...<ref>अनुवादक ने प्रसंग - अनुकूलता की दृष्टि से ग़ालिब का शेर यहाँ उद्धृत किया है ।</ref>
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल