भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाथ गहो / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
डूब गया
तम की बाहों में
व्याकुल अम्बर ।
चलो चलें
प्रानों के पाहुन
अब अपने घर ।
छूकर तट
चंचल लट-सी
लहरें लौट गईं
जल में घुलकर
धुन वंशी की
हो गई नई ।
रिश्तों की
पावन प्रतिमा को
आज सिराकर ।
डूबी हैं
गीली बालू में
करुण कथाएँ
कहीं भूल से
पाँव न इन पर
हम रख जाएँ
हाथ गहो
तब चल पाएँगे
सूने पर पर ।
-0-