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खेतों की जो हरियाली है / ओंकार सिंह विवेक
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खेतों की जो हरियाली है,
हरिया के मुख की लाली है।
लूट रहे हैं नित गुलशन को,
जिनके ज़िम्मे रखवाली है।
आस है इन सूखी फ़सलों की,
नभ में जो बदली काली है।
दे जो सबको अन्न उगाकर,
उसकी ही रीती थाली है।
याद कभी बसती थी उनकी,
अब मन का आँगन ख़ाली है।
पूछो हर्ष धनी से इसका,
निर्धन की क्या दीवाली है।
फँस जाती है चाल में उनकी,
जनता भी भोली-भाली है।